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उत्तराखंड के लोकपर्व ईगास-बग्वाल पर मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने राजकीय अवकाश घोषित किया, जानिए किया है इस पर्व की कहानी

लोकपर्व ईगास-बग्वाल को लेकर मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने २३ नवंबर २०२३ को राजकीय अवकाश की घोषणा की है। यह दूसरा मौका होगा जब उत्तराखण्ड में लोकपर्व ईगास को लेकर अवकाश घोषित किया गया हो। इससे पूर्व पिछले वर्ष भी मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी द्वारा ईगास बग्वाल पर राजकीय अवकाश की घोषणा की गई थी।

मुख्यमंत्री ने कहा कि ईगास बग्वाल उत्तराखण्ड वासियों के लिए एक विशेष महत्व रखता है। लोक संस्कृति के प्रतीक इस पर्व पर हम सब का प्रयास होना चाहिए कि अपनी सांस्कृतिक विरासत और परंपरा को जीवित रखें।

जानिए क्यों मनाया जाता है उत्तराखंड में ईगास बगवाल।

ईगास बगवाल को लेकर कई कथा-कहानियां हैं। लेकिन अगर इगास को वास्तव में जानना हो तो, केवल दो लाइनों में जाना जा सकता है। इन्हीं दो पंक्तियों में पूरे त्योहार का सार छिपा है। वो लाइनें हैं…बारह ए गैनी बग्वाली मेरो माधो नि आई, सोलह ऐनी श्राद्ध मेरो माधो नी आई। मतलब साफ है। बारह बग्वाल चली गई, लेकिन माधो सिंह लौटकर नहीं आए। सोलह श्राद्ध चले गए, लेकिन माधो सिंह का अब तक कोई पता नहीं है। पूरी सेना का कहीं कुछ पता नहीं चल पाया। दीपावली पर भी वापस नहीं आने पर लोगों ने दीपावली नहीं मनाई। इगास की पूरी कहानी वीर सेनापति  माधो सिंह भंडारी के आसपास ही है।

वीर माधो सिंह भंडारी की प्रतिमा
वीर माधो सिंह भंडारी की प्रतिमा

असल कहानी यही मानी जाती है कि करीब 400 साल पहले महाराजा महिपत शाह को तिब्बतियों से वीर भड़ बर्थवाल बंधुओं की हत्या की जानकारी मिली, तो बहुत गुस्से में थे। उन्होंने तुरंत इसकी सूचना माधो सिंह भंडारी को दी और तिब्बत पर आक्रमण का आदेश दे दिया। वीर भड़ माधो सिंह ने टिहरी, उत्तरकाशी, जौनसार और श्रीनगर समेत अन्य क्षेत्रों से योद्धाओं को बुलाकर सेना तैयार की और तिब्बत पर हमला बोल दिया। इस सेना ने द्वापा नरेश को हराकर, उस पर कर लगा दिया। इतना ही नहीं, तिब्बत सीमा पर मुनारें गाड़ दिए, जिनमें से कुछ मुनारें आज तक मौजूद हैं।  इस दौरान बर्फ से पूरे रास्ते बंद हो गए। रास्ता खोजते-खोजते वीर योद्धा माधो सिंह कुमाऊं-गढ़वाल के दुसांत क्षेत्र में पहुंच गये थे।

तिब्बत से युद्ध करने गई सेना का जब कुछ पता नहीं चला, तो पूरे क्षेत्र में लोग घबरा गए। शोक में डूब गए।  जब माधो सिंह युद्ध जीत कर वापिस श्रीनगर पहुंचे तब उन समस्त क्षेत्र के लोगों ने जिनके वीर इस युद्ध में गये थे इगास बगवाल मनाई।

ये भी कथा

ऐसा भी माना जाता है कि प्रभु राम जब 14 साल बाद लंका फतह करके वापिस दिवाली के दिन अयोध्या आये थे तो उत्तराखंड के पर्वतीय ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को इसकी जानकारी 11 दिन बाद पता चली, जिस कारण उन्होंने 11 दिन बाद दिवाली मनाई।

एक और कहानी

एक और कहानी महाभारत काल से भी जुड़ी बताई जाती है। दंत कथाओं के अनुसार महाभारत काल में भीम को किसी राक्षस ने युद्ध की चेतावनी थी। कई दिनों तक युद्ध करने के बाद जब भीम वापस लौटे तो पांडवों ने दीपोत्सव मनाया था। कहा जाता है कि इस को भी इगास के रूप में ही मनाया जाता है।

विष्णु भगवान की होती है पूजा

हरिबोधनी एकादशी यानी इगास पर्व पर श्रीहरि शयनावस्था से जागृत होते हैं। इस दिन विष्णु भगवान की पूजा का विधान है। उत्तराखंड में कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से ही दीप पर्व शुरू हो जाता है, जो कि कार्तिक शुक्ल एकादशी यानी हरिबोधनी एकादशी तक चलता है। इस कारण इसे देवउठनी एकादशी कहा गया। इसे गढ़वाल में ईगास और कुमाऊं में बग्वाल कहा जाता है।

कैसे मनाया जाता है यह पर्व

एकादशी के दिन मिट्ठे करेले और लाल बासमती के चावल का भात बनाया जाता है। भैलो बनाने के लिए गांवा से सुरमाडी के लगले (बेल) लेने के लिए लोग टोलियों में निकलते थे। चीड के पेड़ के अधिक ज्वलनशील हिस्से, जिसमें लीसा होता था। उसको कोटकर लाया जाता है। चीड के अलावा इसके छिलके से भी भैलो बनाए जाते थे। इतना ही नहीं ब्लू पाइन के छिलकों (बगोट) तिब्बत यहां से आयात करता था और इसकी मोटी कीमत चुकाते थे।

भैलू

भेलू से नृत्य करके ईगास मनाते लोग

भैलू…उजाला करने वाला। इसका एक नाम अंधया भी है। अंध्या मतलब अंधेरे को मात देने वाला। इसमें  मुख्य आकर्षण भी भैलू ही होता है। लोग भैलू खेलते हैं। इसमें चीड के पेड़ लकड़ी का प्रयोग किया जाता है। इसके अन्दर का लीसा काफी देर तक लकड़ी को जलाये रखता है। पहले गांव के लोग मिलकी एक बड़ा भैलू बनाते थे। जिसमें समस्त गांव के लोग अपने-अपने घरों से चीड़ की लकड़ी देते थे। कहा जाता है कि इसे जो उठाता था, उसमें भीत अवतरित होते थे।

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